मध्यप्रदेश में पुनः धोखे की विरासत

डी.पी. मिश्र की उसूलों वाली राजनीति

डीपी मिश्र का अपने बेटे की दुकान बंद कराना उस दौर में एक बड़ा संदेश था — “नेता का बेटा सिर्फ आम नागरिक ही रहेगा, नेता नहीं।”

वे अक्सर अफसरों और मंत्रियों की क्लास सार्वजनिक रूप से लगा देते थे, इसलिए उनका नाम “डिक्टेटर मिश्र” तक रख दिया गया था।

उन्हें पढ़ाई-लिखाई और संस्कृति से विशेष प्रेम था, उनके दौर में मध्यप्रदेश में शैक्षणिक संस्थानों और सांस्कृतिक आयोजनों को खूब बढ़ावा मिला।

2. राजमाता सिंधिया की सियासी सूझबूझ

ग्वालियर की रियासत में जन्मीं राजमाता ने राजनीति को “सेवा का माध्यम” माना, लेकिन जब चुनौती दी गई तो राजनीति को शतरंज के खेल की तरह भी खेला।

वे एकमात्र ऐसी महिला नेता थीं, जिनके आदेश पर न केवल विधायक पाला बदलते थे, बल्कि पूर्व रियासती सैनिक तक मैदान में उतर आते थे।

वे दिल्ली में रहते हुए भी भोपाल की राजनीति पर दूर से डोर खींचने वाली “शतरंज की महारानी” थीं।

3. ग्वालियर बनाम भोपाल: राजनीति की अनकही जंग

मध्यप्रदेश में ये तनाव हमेशा रहा — भोपाल प्रशासनिक राजधानी थी और ग्वालियर भावनात्मक राजधानी।

डीपी मिश्र का “पचमढ़ी में राजवाड़ों का अपमान” दरअसल ग्वालियर को सीधा चोट था, और यही उनकी राजनीतिक कब्र बन गई।

ब्यावरा बॉर्डर पर बस रोकने और पुलिस-सेना की भिड़ंत वाला किस्सा आज भी मध्यप्रदेश की राजनीति का सबसे नाटकीय मोड़ माना जाता है।

4. 1967 बनाम 2020: इतिहास ने खुद को दोहराया

1967 में मिश्र गिरे, 2020 में कमलनाथ।

तब राजमाता के आदेश पर बागी विधायकों को ग्वालियर से भोपाल लाया गया, अब ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में बंगलुरू से।

तब भी विधायकों ने सरकार गिराई, अब भी। तब भी कांग्रेस टूटी, अब भी।

5. डी.पी. मिश्र का अंतिम समय: सत्ता से शून्यता तक

कभी जिन्हें इंदिरा गांधी “बुद्धि का महासागर” कहती थीं, वे अंतिम समय में इतने उपेक्षित हो गए कि अंतिम संस्कार में सौ लोग भी नहीं पहुंचे।

जब सरकार ने इलाज का खर्चा उठाया तो उन्होंने “स्वाभिमान” दिखाते हुए अपनी पेंशन से वो पैसा लौटाया।

ये शायद भारत के इतिहास का अकेला ऐसा उदाहरण है, जब एक मुख्यमंत्री ने मरते दम तक सरकारी मदद लेने से इनकार किया।

6. राजनीति की सीख

राजनीति में न मित्र स्थायी होते हैं, न शत्रु — मगर इज्ज़त और स्वाभिमान की पहचान समय करवा ही देता है।

राजमाता का अंतिम संदेश मिश्र के परिवार को — “शोक-संवेदना और पारितोष” — दिखाता है कि सियासत में भले ही तलवारें चलें, दिलों में इंसानियत बाकी रहनी चाहिए।

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