मध्यप्रदेश के बैगा आदिवासी समाज के नाम पर की जा रही एक सुनियोजित ज़मीन लूट का पर्दाफाश हुआ है। जिन आदिवासियों के पास रहने को ढंग की झोपड़ी नहीं, जिनके चूल्हे में लकड़ी की जगह घास जलती है, जिनके बच्चे कुपोषण से जूझ रहे हैं — उन्हीं के नाम पर सरकारी रिकॉर्ड में कभी 200 एकड़ तो कभी 500 एकड़ ज़मीन दर्ज है।
यह रिपोर्ट ना केवल सिस्टम की अनदेखी को उजागर करती है, बल्कि यह भी बताती है कि किस तरह ‘रेगुलेशन’ और ‘डायवर्सन’ के नाम पर जमीन माफिया, रसूखदार और दलाल मिलकर बैगा आदिवासियों की भोली पहचान का फायदा उठाकर बेशकीमती ज़मीन हड़प रहे हैं।
मुख्य खुलासे:
1. झोपड़ी और चूल्हे के बीच 500 एकड़ की जमींदारी!
जिन आदिवासियों के पास सिर्फ टूटी झोपड़ी, मिट्टी का चूल्हा और चंद बर्तन हैं, उनके नाम पर सरकारी रिकॉर्ड में 200 से 500 एकड़ जमीन है।
यह जमीन खरीदी नहीं गई, बल्कि इन आदिवासियों के नाम का इस्तेमाल कर ज़मीन माफिया ने अपने कब्जे में ली।
2. कागजों में ‘मालिक’, हकीकत में ‘मजदूर’:
आदिवासी जिनके नाम पर करोड़ों की जमीन है, वे आज भी दूसरों के खेतों में मजदूरी कर पेट पाल रहे हैं।
इनको कभी जमीन पर हुए सौदे की जानकारी नहीं दी गई, न ही मुआवजा मिला।
3. प्लॉटिंग और रिसॉर्ट की तैयारी:
कटनी, डिंडोरी, उमरिया, मंडला, बालाघाट, शहडोल जिलों में आदिवासियों के नाम की जमीनों को डायवर्ट कर रेजिडेंशियल कॉलोनी और रिसॉर्ट बनाने की योजना चल रही है।
कई जगहों पर बकायदा मेपिंग और प्लानिंग फाइलें स्वीकृत हो चुकी हैं।
महत्वपूर्ण उदाहरण:
- शहडोल, गोहपारू: एक ही परिवार के नाम पर 440 एकड़ जमीन, जबकि असल में उनके पास रहने को खुद की झोपड़ी भी नहीं है।
- डिंडोरी, समनापुर: 200 एकड़ ज़मीन एक आदिवासी के नाम, जबकि वह खुद बोल नहीं पाता और मजदूरी करता है।
- कटनी, बड़वारा: 565 एकड़ जमीन के दस्तावेज़, जिनके ‘स्वामी’ खुद चौंक गए यह सुनकर।
प्रश्न उठते हैं:
- जब आदिवासी खुद भूखे-प्यासे हैं, तो उनके नाम पर ये ज़मीनें कैसे और क्यों दर्ज हुईं?
- क्या प्रशासन को इस पूरे खेल की भनक नहीं?
- जिन लोगों के नाम पर डायवर्शन और NOC पास किए गए, क्या वे उस प्रक्रिया से वाक़िफ़ भी थे?
निष्कर्ष और माँग:
- यह केवल ज़मीन का घोटाला नहीं है, यह आदिवासी अस्मिता और अधिकारों पर हमला है। प्रशासन को तत्काल:
- इन मामलों की जांच उच्चस्तरीय समिति से करानी चाहिए।
- दोषियों पर आपराधिक मामला दर्ज हो।
- जिन आदिवासियों के नाम पर ज़मीन है, उन्हें वास्तविक हक और कब्जा दिलाया जाए।
- आदिवासी क्षेत्रों में जमीन के ट्रांजैक्शन पर सख्त निगरानी और पारदर्शिता लागू की जाए।
यह लड़ाई जमीन की नहीं, हक और पहचान की है। अब यह आवाज़ सिर्फ जंगल से नहीं, हर न्यायप्रिय नागरिक के दिल से उठनी चाहिए।